प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बस्तर की दूसरी यात्रा करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री होंगे। बस्तर की परिस्थितियों, क्षेत्र में व्याप्त लाल आतंक की बाधा और बस्तर की असीम विकासकी संभावनओं का भी वे भली-भांति जानते समझते हैं इसलिए उन्होंने राज्य सरकार की हर संभव सहायता के द्वारा उन्मुक्त कर रखे हैं। वे गंभीरता से नक्सली आतंक से मुक्त कर बस्तर को उसकी अपरिमित विकास की संभावनाओं के आकाश छूने का अवसर देना चाहते हैं।
जरूरी है उनकी सोंच के अनुरूप वातावरण गढ़ने की ऐसी ठोस व्यूह रचना की जिसकेबल पर बस्तर व छत्तीसगढ़ में सहीं अर्थो में शांति व विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके।
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभावों की जिंदगी को स्वयं देखा और भोगा है इसलिए आम लोगों की तकलीफें क्या होती है उन्हें भली भांति पता है। उन्हें पता है कि गरीब लोगों के लिये अपने परिवार के बच्चे की शिक्षा से अधिक उनके लिए रोटी की समस्या का निराकरण उनकी पहली प्राथमिकता है।
रोटी की समस्या से निजात मिलने के बाद ही वे अपने बच्चों को शिक्षा और उनके विकास की बात सोंच पाते हैं।
प्रदेश की स्थिर सरकार ने उन्हें सपने तो दिखाए हैं और शिक्षा चिकित्सा का वातावरण निर्मित कर एक हद तक आश्वस्ति जरूर दी है पर बस्तर में जिस तरह के वातावरण लाल आतंक के साए में पसरा हुआ है उसने क्षेत्रीय जनजातीय परिवारों के उमंगपूर्ण जीवन में भय का वातावरण सृजित कर रखा है।
अभाव ग्रस्त जीवन के बावजूद बस्तर के जनजातिय परिवार उन्मुक्त होकर मांदर की थाप में थिरकते दीख पड़ते थे शाम गहराने के साथ गांव-गांव डगर-डगर में गीतों का रेला फूट पड़ता था। पर विगत दो दशकों के दौरान जिस प्रकार लाल आतंक का साया गहराता गया उसनेबस्तर के जन जीवन को गहन असुरक्षा के बीच धकेल दिया है। अब हालात ये है कि नक्सलवाद अपने वास्तविक धरातल से दूर होने के बावजूद आतंक निर्दोष हत्याओं के सिलसिलेको अर्थतंत्र से ओड़क्र अपनी धाक अपना अस्तित्व बचाने की जुगत में जुटा हुआ है।
सच तो ये है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नक्सलवाद का कोई वास्तवित अस्तित्व है ही नहीं किन्तु निहीत स्वार्थ से बंधे कतिपय भ्रमित लोग बंदूक और बारूद की राजनीति से अपना वर्चस्व और अस्तित्व बचाने का उपक्रम कर रहे है।
नक्सलवाद के मूल में कौन से तथ्य रहे हैं इसे समझने की आवश्यकता न तो कथित नक्सली नेतृत्व को है न ही भय से शामिल उनके संघम सदस्यों को इसे समझने की आवश्यकता है।
नक्सलवाद के अभ्युदय और उसके प्रारंभिक गत सातवें दशक की परिस्थितियॉं भिन्न थी आ भारत के प्रजातांत्रिक पुष्ट वातावरण व विकास क्रम में हर व्यक्ति अपने अधिकारों को लेकर न केवल जागरूक है वरन की प्राप्ति के लिए अपने स्तर से प्रजातांत्रिक प्रक्रिया के तहत हर संभव प्रयास के प्रति भी गंभीर है। ऐसे में नक्सलवाद के मूल में जमींदारी-जागीरदारी व अभिजात्य प्रवृत्ति का स्वमेव लोप हो चुका है ऐसे में बदली परिस्थितियों में नक्सलवादकी न तो कोई आवश्यकता है न ही उसके लिये अनुकूल सामाजिक वातावरण नक्सलवाद वर्तमान में कुछ अति महत्वाकांक्षी समाज विरोधी अर्थलोलुप लोगों की विकृत मानसिकता का परिचायक ही बनकर रह गया है नक्सलवाद का सिद्धांत कथित नक्सलियों के लिए गौण बन कर रह गया है। व्यक्ति तुष्टिकरण के लिए आतंक,भय और नृशंग हत्याओं के जरिये भयाक्रांत करना क्षेत्र में अशांति फैलाना और उनकी सोंच के किस स्तर व उद्देश्य को ज्ञापित करता है इसे वे तथाकथित नक्सली भी बता पाने में समर्थ नहीं है। सच्चाई का एक कटु यथार्थ यह भी है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था से जुड़े सभ्रान्त लोग, अपनी अर्थ लोलुपता में नक्सली आतंक को ढाल के रूप में अपने निहीत स्वार्थ सिद्धि का कारण बनाये हुए हैं, जिसके बल पर ठेकेदारी व्यापार और परिवहन सेवाओं के नाम पर कथित लाल आतंक के आकाओं को नियमित चंदे की बदौलत अपना अभिष्ठ पूरा करने में लगे हैं। जिसके फलस्वरूप नक्सलियों को विभिन्न निर्माण से जुड़े ठेकेदार तेन्दुपत्ता व्यापारी प्रति वर्ष 700 से 1000 करोड़ का चंदा लाल आतंक की नजर करते दीख पड़े हैं जिसके बल पर बारूद, आधुनिक हथियार तक लाल आतंक की पहुंच हो पा रही है और ये कथित सभ्रान्त ठेकेदार भी बारूदी असला उन तक सुलभ कराने का सहयोग कर रहे हैं जिसकी वजह से नक्सलवाद की वास्तविक परिस्थितियां न होने के बावजूद नक्सली अर्थ प्रलोभन में इसके निरन्तर विस्तार करने में जुटे हुए हैं। वे जानते हें कि आज की सामयिक प्रजातांत्रिक पुष्ट परंपरा में नक्सलवाद का कोई अस्तित्व नहीं है और उनकी अपन कोई सार्वजनिक पहचान कायम करने के प्रति भीवे प्रतिबद्ध नही है जाहिर है कि उनका एक मात्र लक्ष्य निर्दोषां की हत्या, क्षेत्र में आतंक और अशांति का वातावरण निर्मित कर अपनी साख और अर्थपिपासा की परिशांति ही है।
ऐसे में लाल आतंक से मुक्ति के लिए पूरी सुदृढ़ता के साथ सामाजिक व्यवस्था को प्रेरित करने की आवश्यकता है इसके लिये शासन स्तर पर आर्थिक क्षति भी उठानी पड़े तो उससे गुरेज नहीं करना है।
दूसरी ओर सच्चाई यह है कि बस्तर में लोग शांति से जी रहे हैं। लोगों को नक्सलियों से कोई परेशानी नहीं है एक सर्वे के अनुसार दक्षिण बस्तर कोंटा से लेकर पश्चिम बस्तर भोपालपटनम तथा उत्तर बस्तर के बांदे पखांजूर तथा अबूझमाड़ क्षेत्र में आदिवासी निर्भय होकर जी रहे हैं। स्थानीय लोगों को कोई परेशानी नहीं है बल्कि नक्सलियों के नाम पर प्रसारित होने वाले समाचारों ने बस्तर की छवि को खराब कर दिया है। आज बस्तर में कोई भी रिश्ता नहीं करना चाहता तथा दक्षिण या पश्चिम बस्तर से दिल्ली या अन्य स्थानों पर रूकने के लिये परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वहॉं के होटल मालिक दंतेवाड़ा, सुकमा, कोंटा, पटनम का नाम सुनकर यह समझते हैं कि नक्सलवादी क्षेत्र से आया व्यक्ति कहीं नक्सली तो नहीं हैं। इस भ्रम को दूर करने के लिये मीडिया को भी समाचारों के मामले में संयम बरतने की जरूरत है। दक्षिण बस्तर के सुकमा में पत्रकारों की बैठक में वरिष्ठ पत्रकार साधुराम दुल्हानी ने पत्रकारों को समझाईस दी कि बस्तर के समाचारों में संयम बरतें सोंच समझकर समाचार भेजें ताकि देश के अन्य हिस्सों में बस्तर आतंकी संभाग न बन सके और लोगों को रिश्तेदारी तथा रूकने की समस्या से दो-चार न होना पड़े।
देश के केन्द्रिय गृहमंत्री राजनाथसिंह कहते है कि नक्सली आदिवासियों को अपनी ढाल बनाकर विकास के खिलाफ काम कर रहे हैं उसमें वे कामयाब नहीं होंगे। केन्द्र और राज्य साथ मिलकर वामपंथ से निपटने के लिये रणनीति में बदलाव की आवश्यकता होगी तो करेंगे।
प्रदेश के मुखिया डॉ0रमनसिंह का कहना है कि नक्सलियों से लोहा लेने हमारे जवान काम करते रहेंगे। अपने कदम पीछे नहीं खिचेंगे। नक्सली जानते हैं कि बस्तर का विकास होगा तो उनकी कमर टूट जायेगी। आने वाले समय में हमारे जवानों को और सतर्क होकर काम करना होगा।
आदिवासी राष्ट्ीय मंच के अध्यक्ष पूर्व विधायक मनीष कुंजाम का मानना है कि बस्तर के जनजातियों को जल जंगल और जंगल की मूल विरासत उनके हाथों में सौंपने के प्रति शासन स्तर पर प्रतिबद्धता दिखला कर, क्षेत्रीय ग्रामीणों को लाल आतंक के प्रभाव क्षेत्र से विमुक्त किया जा सकता है।
वहीं बस्तर टाइगर के रूप में आजीवन नक्सलियों के विरूद्ध हुंकार भर कर शहादत देने वाले महेन्द्र कर्मा के पुत्र दीपक कर्मा का मानना है कि ठेकेदारों-व्यापारियों व तेन्दूपत्ता व्यापारियों के तकरीबन 1000 करोड़ चंदे के बल पर ही आतंक वातावरण व्याप्त है और संकल्पित होकर ही इस समस्या से निपटा जा सकता है। दीपक कर्मा का कहना है कि बस्तर में अधिकांश ठेकेदार आंध्रप्रदेश के हैं, स्थानीय लोग सक्षम नहीं हो पा रहे हैं। बाहर के ठेकेदारों को क्यों काम दिया जाता है जो शंका के घेरे में रहते हैं उसी प्रकार आंध्रप्रदेश से आये अधिकारियों पर भी सांठगांठ का आरोप लगते रहता है।
छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक नक्सली आपरेशन डीएम अवस्थी ने कहा कि नक्सलियों के खिलाफ आक्रामक होने की जरूरत है। फोर्स को नक्सलियों के खिलाफ आफेसिंव होना होगा। डिफेंसिव से काम नहीं चलेगा। पुलिस नक्सलियों के खिलाफ आक्रामक रणनीति अपनाएगी। काम करने के टेक्नीक में भी बदलाव करेगी।

रहा प्रश्न लाल आतंक से क्षेत्र को मुक्त कर बस्तर ही नहीं वरन सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में अपने डैने पसार रहे आतंक के नियंत्रण का सो विगत 15 वर्षो का अनुभव यह दर्शाता है कि लाल आतंक पर अंकुश लगाने की पहल में कोई कमी नहीं आई है। पर सच्चाई यह भी है कि किसी ठोस व्यूह रचना के अभाव में सरकार के मंसूबे साकार नहीं हो पा रहे प्रदेश की संवेदनशील सरकार को इस विकराल होती समस्या के निराकरण हेतु ठोस रणनीति बनानी होगी।
रहा प्रश्न केन्द्र सरकार के सहयोग का सो जग जाहिर है विगत 4 वर्षो के दौरान आविसी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ के प्रति प्रधानमंत्री, भाजपा व संघ परिवार का विशेष रूझान परिलक्षित हुआ है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बस्तर की दूसरी यात्रा करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री होंगे।

बस्तर की परिस्थितियों, क्षेत्र में व्याप्त लाल आतंक की बाधा और बस्तर की असीम विकासकी संभावनओं का भी वे भली-भांति जानते समझते हैं इसलिए उन्होंने राज्य सरकार की हर संभव सहायता के द्वारा उन्मुक्त कर रखे हैं। वे गंभीरता से नक्सली आतंक से मुक्त कर बस्तर को उसकी अपरिमित विकास की संभावनाओं के आकाश छूने का अवसर देना चाहते हैं।
जरूरी है उनकी सोंच के अनुरूप वातावरण गढ़ने की ऐसी ठोस व्यूह रचना की जिसकेबल पर बस्तर व छत्तीसगढ़ में सहीं अर्थो में शांति व विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके।
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