Story of Bilkis Bano:- विश्व में भारत को हमेशा उसकी विविधता के कारण ही पहचान गया है, ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टिकोण से भी अगर भारत का मापन किया जाए तो विविधता का ये गुण ही है जो भारत को बाक़ी देशों से अलग छवि प्रदान करता है।
प्रश्न तब खड़े होते है जब इसी विविधता में पनप रहे अतिवादी लोगों के कारण न जाने कितने मासूम लोगों को दुर्व्यवहार के साथ साथ अपने जीवन से ही हाथ धोना पड़ता है। अपने ही परिवारजनों को अपनी ही आँखों के सामने मरते हुए देखना क्या इस से भी बड़ा कोई नर्क या जहन्नुम हो सकता है।
ऐसी ही एक घटना बिलकिस बानो (Bilkis Bano) की है जो 2002 में गुजरात के गोधरा में हुए दंगो का शिकार हुई। गोधरा कांड (Godhra incident) में दंगाइयों ने बिलक़िस बानो, जो कि 5 महीने की गर्भवति थी उनका बलात्कार किया और उनके परिवार के 7 सदस्यों की उन्हीं की आँखों के सामने हत्या कर दी। जिसमें उनकी 3 साल की बेटी भी शामिल थी। दंगाइयों को ये भी कम लगा तो उन्होंने उनकी माँ के साथ भी बलात्कार किया और उसके बाद उनकी भी हत्या कर दी।
हाल ही में बिलक़िस बानो केस के 11 दोषियों को गोधरा जेल (Godhra Jail ) से रिहा किया गया। भारत की न्यायपालिका को शायद ये कृत्य कम लगा होगा इसलिए न्यायालय ने खुद के शब्दों को वापस लेते हुए उम्रक़ैद की सज़ा को कम करके दोषियों को 14 साल में ही रिहा कर दिया। इतना ही नहीं उनका फूलों की माला के साथ स्वागत भी किया गया।

बिलकिस बानो का जीवन सिर्फ अपने इंसाफ की लड़ाई लड़ने में ही गुजर गया।
दोषियों को जब सज़ा मिली तो स्वाभिमान के साथ उन्हें जीवन जीने की एक वजह दिखाई पड़ी। वो अपने परिवार और बच्चों के साथ एक खुशनुमा ज़िन्दगी जी रही थी परंतु ये सिलसिला इतने जल्दी कैसे ख़त्म होता देश के क़ानून में काली पट्टी जो लगी हुई है। हमारे देश की न्यायपालिका ने 14 साल बाद ही दोषियों को ज़ैल से बाहर निकाला दिया। न्यायपालिका के इस निर्णय ने मानो उनका स्वाभिमान ही छीन लिया।
ये किस तरह का समाज हम बनाना चाह रहे है,
जहाँ अतिवादियों के कृत्य की सज़ा मासूमों को भुगतनी पड़ती है और वो न्याय की गुहार भी लगाए तो उस चीज़ का राजनीतिकरण कर दिया जाता है। क्या कभी किसी ने सोचने की कोशिश की होगी कि बिलक़िस के भीतर क्या चल रहा होगा या उन सभी महिलाओ के मन मे जिनके साथ ये जघन्य अपराध हुआ है। बेशक गोधरा में हुए दंगो की शुरुआत तो कहीं से हुई ही होगी।
परंतु मासूमों को मारना कहाँ का न्याय होगा, न्याय मिलने से ज़्यादा आसान अपराध करना है और अपराध कर के अपराधी को शायद खुद का न्याय मिलता होगा। इसी तरह अगर आगे दास्ताँ चलती रही तो वो दिन दूर नहीं होगा जब लोगों का न्यायपालिका से ही यक़ीन उठ जाएगा।
कितने लोग आज भी जघन्य अपराध कर के बाहर घूम रहे है या फिर जिन्हें सज़ा मिली भी उन्हें रिहा कर दिया गया, तो क्या अब यही न्याय है भारत देश का ? क्या आगे आने वाली पीढ़ी यही न्याय प्रणाली (Justice System) के साथ आगे बढ़ेगी ? क्या हम कभी इस क्षेत्र में नए चरणों को शामिल नहीं करेंगे या करेंगे भी तो कुछ तथ्यों के आगे झुक जाएंगे, ऐसे सवाल के साथ हमारा आपका जीना तो मुमकिन है पर अब बिलकिस बानो (Bilkis Bano) पर उनके जैसी तमाम औरतो का क्या ?
इस फैसले से न सिर्फ एक महिला का विश्वास टूटा है बल्कि हर उस महिला का विश्वास टूट गया जिसे न्याय प्रणाली से थोड़ी बहुत न्याय की भी उम्मीद थी।
27 फ़रवरी की घटना:-
ज्ञात न हो तो बता दे की साल के दूसरे महीने का 27वां दिन एक दुखद घटना के साथ इतिहास के पन्नों में दर्ज है। दरअसल 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा स्टेशन से रवाना हुई साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन (sabarmati express train) में उन्मादी भीड़ ने आग लगा दी।
इस भीषण अग्निकांड में अयोध्या से लौट रहे तीर्थयात्रियों और कारसेवकों की मौत हो गई। गोधरा स्टेशन पर पिछले दिन की घटना के बाद राज्य में हिंसा भड़कने के बाद बिलकिस दाहोद जिले के राधिकपुर गांव से निकल गई।
बिलकिस के साथ उसकी बेटी सालेहा, जो उस समय साढ़े तीन साल की थी, और उसके परिवार के 15 अन्य सदस्य थे। कुछ दिन पहले बकरीद के अवसर पर उनके गांव में हुई आगजनी और लूटपाट के डर से वे भाग गए।
3 मार्च 2002 को परिजन छप्परवाड़ गांव पहुंचे।
चार्जशीट के मुताबिक उन पर हंसिया, तलवार और लाठियों से लैस करीब 20-30 लोगों ने हमला किया था। हमलावरों में 11 आरोपी युवक भी थे। बिलकिस, उसकी मां और तीन अन्य महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उन्हें बेरहमी से पीटा गया। राधिकपुर गांव के मुसलमानों के 17 सदस्यीय समूह में से आठ मृत पाए गए, छह लापता थे। हमले में केवल बिलकिस, एक आदमी और एक तीन साल का बच्चा बच गया।
हमले के बाद कम से कम तीन घंटे तक बिलकिस बेहोश रही।
होश में आने के बाद, उसने एक आदिवासी महिला से कपड़े लिए और एक होमगार्ड से मिली जो उन्हें लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन ले गया। उन्होंने हेड कांस्टेबल सोमाभाई गोरी (Head Constable Somabhai Ghori) के पास शिकायत दर्ज कराई। सीबीआई (CBI ) के अनुसार इस शिकायत में भौतिक तथ्यों को दबाया और उसकी शिकायत का एक विकृत और छोटा संस्करण लिखा।
गोधरा राहत शिविर पहुंचने के बाद ही बिलकिस को मेडिकल जांच के लिए सरकारी अस्पताल ले जाया गया। उसके मामले को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) (NHRC) और सुप्रीम कोर्ट ने उठाया। फिर सीबीआई द्वारा जांच का आदेश दिए गए।
ये सब कुछ बस इतना ही नही, सीबीआई के निष्कर्ष के मुताबिम पोस्टमार्टम (Post Mortem Report) के बाद उस हमले में मारे गए सभी लोगो के सिर धड़ से अलग कर दिए गए थे ताकि उनकी शिनाख्त न हो सके जिससे आरोपियों की सुरक्षा की जा सके और पोस्टमार्टम परीक्षण को नुकसान पहुँचाया जा सके।
आज इन दोषियों को 2014 की नही 1992 न्याय नीति के तहत सज़ा माफ हुई है,गुजरात में 2014 में नयी और संशोधित माफी नीति प्रभाव में आयी थी, जो अब भी प्रभावी है। दोषियों की श्रेणियों के बारे में विस्तृत दिशानिर्देश हैं जिनमें यह बताया गया है कि किन्हें राहत दी जा सकती है और किन्हें नहीं।
दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सामूहिक हत्या के लिए और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के दोषी सज़ायाफ़्ता कैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जाएगी।
चूंकि, 2008 में दोषसिद्धि हुयी थी, उच्चतम न्यायालय ने 1992 की माफी नीति के तहत हमें इस मामले में विचार करने का निर्देश दिया, जो 2008 में प्रभाव में था। उस नीति में विशेष रूप से यह स्पष्ट नहीं था कि किसे माफी दी जा सकती है और किसे नहीं। वर्ष 2014 में आयी नीति की तुलना में वह उतनी विस्तृत नहीं थी।
इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए हम किस निष्कर्ष पर पहुचते है कि क्या भारत सरकार की बनाई गई न्याय प्रणाली (Justice system) पर हमें आँख बन्द कर के भरोसा करना चाहिये ?
ईशानी मिश्रा